भव्य आत्माओं- श्रद्धा- समर्पण- भरोसा से ही इस लोक में मनुष्यों का लोक व्यवहार चलता है- आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज

भव्य आत्माओं- श्रद्धा- समर्पण- भरोसा से ही इस लोक में मनुष्यों का लोक व्यवहार चलता है- आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज

Acharya Shri 108 Subal Sagar Ji Maharaj

Acharya Shri 108 Subal Sagar Ji Maharaj

 चंडीगढ़। Acharya Shri 108 Subal Sagar Ji Maharaj: दिगम्बर जैन मंदिर में वर्षायोग धारण करने वाले परम पूज्य आचार्य श्री 108 सुबल- सागर जी ने धर्म सभा को संबोधित करते हुआ कहाँ कि हे भव्य आत्माओं- श्रद्धा- समर्पण- भरोसा से ही इस लोक में मनुष्यों का लोक व्यवहार चलता है। हर आदमी कहीं न कहीं अपने को समर्पित कर ही देता है। आचार्य श्री जी ने कहाँ कि ऐसे व्यक्तियों के सामने अपने को समर्पित न करो जो मूर्ख हो, खेद-खिन्न हो, घमण्डी हो, तथा और कृतनी हो!

मुर्ख व्यक्ति काम तो करता नहीं हैं, अपितु कहीं करता भी है तो काम बिगाड़‌ता है और आपत्तिओं का भी सामना करना पड़ता है सर्व विनाश कर देता है। देखो! पर्वत, वसु और नारद एक साथ पढ़े थे। उनमें पर्वत मूर्ख था, दुर्बुधि था। वसु जब राजा बना तो पर्वत की माँ के कहने से राजा वसु ने पर्वत के पक्ष में निर्णय दे दिया। मूर्ख पर्वत के व्यामोह में माँ ने राजा वसु को नरक पहुँचा दिया। मूर्ख का उपचार करने अथवा उसकी बात मानना ही उसके प्रति समर्पण हैं, इस समर्पण के कारण राजा वसु नरक गया।

जो खेद- खिन्न हो, किसी विषाद में डूबा हो, दुःखी हो ऐसे व्यक्ति को भी आत्म समर्पण नहीं करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति का विश्वास नहीं करना चाहिए। एक दादी माँ ने रास्ते चलते एक आदमी को रोककर कहा कि मेरी ऐ गठरी थोड़ी दूर ले चलो। पहले तो वह व्यक्ति इंकार करके चला गया। थोड़ी देर बाद जब उसके मन में आया  कि गठरी उठा लेते और चलते बनते तो वह लौटा। उसने बुढ़िया /दादी माँ की गठरी मांगी बुढ़िया ने उसके चहरे को पढ़‌लिया और उसके मन के अवसाद 'को भाप लिया। माँ ने गढरी देने से मना किया और कहा मैं जिसे गठरी देना चाहती थी, वह आदमी 'दूसरा था, और तुम दूसरे हो। घमंडी व्यक्ति को कभी अपना समर्पण नहीं करने को कहा है क्योंकि घमंडी लोग अपने सामने किसी की नहीं सुनते है न ही समझते है। बस जो दिमाक में चलता है चाहे वह गलत हो उसे करते ही हैं रावण इसमें प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ, रावण के घमंड के कारण उसका सगा भाई विभीषण भी उसको छोड़कर राम जी के पास चले गए थे और जो उनके पास रहे, सभी नाश को प्राप्त हुऐ थे।

कृतघ्नी व्यक्ति के प्रति भी समर्पण नहीं करने को कहा है क्यों कि वह किसी के उपकार को नहीं मानता है इसमें सुभौम राजा का रसोई हुआ है जिसने मर कर अपने ही राजा को मारा था। इसलिए भरोसा - विश्वास- श्रद्धा-समर्पण हमें सच्चे धर्म-देव-शास्त्र- गुरुओं के प्रति करने से हमारा इस भव में कल्याण है और पर भव भी सुख- 'शांति - वैभव समृद्धि को देने वाला बताया है यह जानकारी संघस्य बाल ब्र.गुंजा दीदी एवं धर्म बहादुर जैन जी ने दी।

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